ज़िंदगी बहुत दोगली होती है,
अकेलेपन में घबराती है,
महफ़िल में इतराती है,
तो कभी महफ़िल मैं डर जाती है,
और अकेलेपन में सुकून पाती है,
ज़िंदगी बहुत दोगली होती है।
ज़िंदगी बहुत दोगली होती है,
कभी किसी का साथ चाहती है,
तो कभी एक पल में ही उसी को खुद से फरार चाहती है,
अजनबी को देखकर इसे दया आती है,
तो कभी अपनों को देखकर भी तरस नहीं खाती है,
ज़िंदगी बहुत दोगली होती है।
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